रविवार, 19 सितंबर 2021

अलंकार

अलंकार

हिन्दी :-काव्य के तत्व अलंकार जो साहित्य को अलंकृत करते हैं। अलंकार संगीत के लिए जिनका अभ्यास किया जाता है अलंकार जो प्रमुख व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं। अलंकार जो शरीर का सौंदर्य बढ़ाने के लिए धारण किए जाते हैं।
संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में ‘काव्य’ शोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ – काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं। हिन्दी के कवि केशवदास एक अलंकारवादी हैं।

अलंकार की परिभाषा:

काव्य में सौंदर्य उत्पन्न करने वाले शब्द को अलंकार कहते है।

अलंकार शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है - आभूषण। काव्य रूपी काया की शोभा बढ़ाने वाले अवयव को अलंकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढ़ते हैं, उसी प्रकार अलंकार साहित्य या काव्य को सुंदर व रोचक बनाते हैं।

अलंकार के मुख्यत : दो भेद होते हैं-

1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार

1.शब्दालंकार:

शब्दों के कारण जब काव्य में सौंदर्य उत्पन्न होता हैं, वहाँ शब्दालंकार होता हैं ।
मुख्य शब्दालंकार निम्न है-
1. अनुप्रास
2. श्लेष
3. यमक

1. अनुप्रास अलंकार -


जहाँ एक ही वर्ण बार - बार दोहराया जाए, अर्थात वर्णों की आवृति हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। उदाहरण:
" चारु- चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही थी जल- थल में"।
या
तट तमाल तरूवर बहू छाए
( ‘त ‘ वर्ण की आवृत्ति बार – बार हो रही है )

(2) श्लेष अलंकार:-


जहाँ काव्य में प्रयुक्त किसी एक शब्द के कई अर्थ हों, वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
उदाहरण:
"रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून ।
पानी गये ऊबरे, मोती, मानस, चून ।।"
( पानी के अर्थ है – चमक , इज्जत , जल )
या
सीधी चलते राह् जो रहते सदा निशंक,
जो विप्लव करते उन्हें “हरि” का है आतंक
*यहाँ हरि का अर्थ भगवान से एवं बन्दर से है
” रो-रोकर सिसक – सिसक कर कहता मैं करुण कहानी।
तुम सुमन नोचते , सुनते , करते , जानी अनजानी। ।"
यहां ‘ सुमन ‘ शब्द का एक अर्थ है ‘ फूल ‘ और दूसरा अर्थ है ‘ सुंदर मन ‘ | ‘ सुमन ‘ का खंडन सु + मन करने पर ‘ सुंदर + मन ‘ अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है। मेरी भव बाधा हरो ,राधा नागरी सोय , जा तन की झाई परे , श्याम हरित दुति होय। ( हरित – हर लेना , हर्षित होना , हरा रंग का होना। )

(3) यमक अलंकार:-


जहाँ शब्दों या वाक्यांशों की आवृति एक से अधिक बार होती है, लेकिन उनके अर्थ सर्वथा भिन्न होते हैं, वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण:
"कनक-कनक से सो गुनी, मादकता अधिकाय,
वा खाय बौराय जग, या पाय बोराय।।'
यहाँ कनक का अर्थ है सोना(गोल्ड) एवं धतूरा(जहरीला पदार्थ) से है
काली घटा का घमंड घटा ।
(घटा – बादलों का जमघट , घटा – कम हुआ)

2. अर्थालंकार:

जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में सुन्दरता का होना पाया जाये, वहाँ अर्थालंकार होता है। इसके मुख्य भेद निम्नलिखित हैं I
(1) उपमा
(2) रूपक,
(3) उत्प्रेक्षा,
(4) अतिश्योक्ति
(5) मानवीकरण

(1) उपमा अलंकार: -


उपमा शब्द का अर्थ है-तुलना। जहाँ किसी व्यक्ति या वस्तु की अन्य व्यक्ति या वस्तु से चमत्कारपूर्ण समानता की जाय, वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उदाहरण:-
"पीपर- पात सरिस मन डोला।"
(यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है)
या
''हरि पद कोमल कमल से'
या
"बढ़ते नद सा वह लहर गया "
यहाँ राणा प्रताप का घोडा चेतक(वह) उपमेय है, बढ़ता हुआ नद ( उपमान) सा
अन्य उदाहरण
• कोटि कुलिस सम वचनु तुम्हारा।
• सहसबाहु सम सो रिपु मोरा
• चांदी की सी उजली जाली।
• रोमांचित सी लगती वसुधा।

(2) रूपक अलंकार:-


जहाँ उपमान और उपमेय के भेद को समाप्त कर उन्हें एक कर दिया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है।(अर्थात तुलना समाप्त करके वास्तु/व्यक्ति को वही रूप प्रदान कर दिया जाता है)
उदहारण:
• मईया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों
• चरण – कमल बन्दों हरि राई।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार:-


जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाय , वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।। इसमें 'मनु', 'मानो','जनु', 'जानो' आदि शब्दों का प्रयोग होता है।
उदाहरण:-
• "सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलोने गात।
मनहु नील मणि शैल पर, आतप परयो प्रभात।।"
• कहती हुई यो उतरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणो से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार:-


जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति का वर्णनं बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण:-
• पानी परात को हाथ छुओं नहीं नैनं के जल से पग धोयेI
• हनुमान के पूँछ में लगन न पायी आग
लंका सिगरी जल गई , गए निशाचर भाग।

5 मानवीकरण अलंकार:-


जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।अर्थात् प्राकृतिक चीजों को मनुष्य के समान प्रस्तुत किया जाता है
उदाहरण:
• मेघ आये बन ठन के संवर के
• दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या सुन्दरी , परी सी।

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

प्रत्यय

प्रत्यय

जो शब्दांश किसी मूल शब्द के पीछे या अन्त में जुडकर नवीन शब्द का निर्माण करके पहले शब्द के अर्थ में परिवर्तन या विशेषता उत्पन्न कर देते हैं | कभी कभी प्रत्यय लगाने पर भी शब्द के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता है |
जैसे बल - बालक ,मृद-मृदाल |
प्रत्यय लगने पर शब्द एवं शब्दांश में संधि नहीं होती बल्कि शब्द अंतिम वर्ण में मिलने वाले प्रत्यय के स्वर की मात्रा लग जाती है ,व्यंजन होने पर वह यथावत रहता है |
जैसे लोहा + आर = लोहार, नाटक + कार = नाटकार |
शब्द-रचना में प्रत्यय पर कही पर अपूर्ण क्रिया , कही पर सम्बन्धवाचक और कही पर भाववाचक के लिए प्रयुक्त होते है |
जैसे मानव + ईय =मानवीय |
लघु +ता =लघुता |

हिंदी में प्रत्यय तीन प्रकार के होते है –

1 संस्कृत का प्रत्यय
2 हिंदी का प्रत्यय
3 विदेशी भाषा का प्रत्यय

1.संस्कृत का प्रत्यय :

संस्कृत व्याकरण में शब्दों ओंर मूल धातुओं से जो प्रत्यय जुड़ता है ,
जैसे– • तृ (ता) – पिता,कृत ,दाता,ध्याता,जाता |
• अक –पाठक ,बालक ,विचारक ,गायक |
• त- आगत ,विगत ,विश्रुत ,कृत |
• तव्य – कर्तव्य ,गन्तव्य ,ध्यातव्य |
• य – नृत्य ,पूज्य ,खाद्य |
• ईय – पठनीय,पूजनीय,स्मरणीय |
• अन – पठन ,हवन ,गमन |
• ति – गति ,मति , रति |
• अ – जय ,लाभ ,विचार |
• अव –लाधव ,गौरव |
• त्व – महत्व ,गुरुत्व ,लघुत्व |
• ता –लघुता ,गुरुता ,मनुष्यता ,कविता |
• इमा –महिमा ,गरिमा |
• य –चातुर्य ,माधुर्य,सौंदर्य |
• एव – शैव ,वैष्णव |
• इक – लौकिक, धार्मिक, वार्षिक |
• इत - पंडित, प्रचलित, मोहित |
• इल –जटिल,फेनिल |
• ईय –भारतीय, प्रांतीय, नाटकीय, भवदीय |
• य –ग्राम्य ,काम्य,हास्य ,भव्य |
• अ– पार्थ, पाण्डव, माधव, राघव, भार्गव |
• इ– दशरथि, मारुति, सौमित्र |
• य– गालव्य, शाक्य, गार्ग्य |
• म – प्रथम,पंचम,नवम,दशम |
• थ /ठ –चतुर्थ,षष्ठ |
• तीय –द्वितीय,तृतीय
• तर-अधिकतर,गुरुतर,लघुतम |
• ईय–गरीय ,वरीय,लधीय |
• वान् – धनवान्, बलवान् |
• मान् – बुद्धिमान्, शक्तिमान्, गतिमान्, आयुष्मान |
• आलु – कृपालु, दयालु, शंकालु |
• ई – क्रोधी, धनी, लोभी, गुणी |

2.हिंदी के प्रत्यय

संस्कृत की तरह ही हिंदी के भी अनेक प्रत्यय होते है | ये प्रत्यय यद्यपि कृदंत और तद्धित की तरह जुड़ते है, परन्तु मूल शब्द के तद्भव या देशज होते है | हिंदी के सभी प्रत्ययों कों निम्न वर्गों में सम्म्लित किया जाता है |
जैसे- • प्रत्यय –शब्द ,रुप |
• आर – सुनार ,लोहार |
• इया – दुखिया,सुखिया ,रसिया ,गडरिया |
• इयल – मरियल ,सडियल ,दढियल |
• एरा – सपेरा, लुटेरा,कसेरा,लखेरा |
• वाला – धारवाला ,मोटरवाला |
• आ – प्यासा, भूखा |
• आई –मिठाई, रंगाई, सिलाई, भलाई |
• आका - धमाका ,धडाका ,भडका |
• आस –मिठास ,खटास ,भड़ास |
• पन –लड़कपन ,बचपन |
• आई – बहनोई, ननदोई, रसोई |
• आडी – खिलाड़ी ,पहाड़ी ,अनाड़ी |
• एरा – चचेरा ,ममेरा ,फुफेरा |
• आरी – लुहारी ,सुनारी ,मनिहारी |
• आल – ननिहाल ,ससुराल |
• ई – रस्सी, कटोरी, टोकरी |
• इया –खटिया, लुटिया, चुटिया, पुडिया |
• डा – मुखडा, दुखडा, चमड़ा |
• डी – टुकड़ी, पगड़ी |
• था –चौथा |
• रा – दूसरा ,तीसरा |
• ला –पहला |
• हरा –इकहरा ,दुहरा ,तिहरा |
• सा – मुझ - सा, तुझ – सा, नीला - सा |
• हरा – दुहरा, तिहरा, चौहरा |
• हला – सुनहला, रुपहला |
• आ – मीठा, ठंडा, प्यासा, भूखा, प्यारा |
• ईला –लचीला, गँठीला, सजीला, रंगीला |
• ऐला – मटमैला, विषैला |
• आऊ –बटाऊ, पंडिताऊ, खटाऊ |
• ता – मूर्खता, लघुता, कठोरता, मृदुता |
• ई – पंजाबी, गुजराती, मराठी, बीकानेरी |
• इया – जयपुरिया |
• आना – राजपूताना, तेलंगाना |

3.विदेशी प्रत्यय

हिंदी में उर्दू के ऐसे प्रत्यय है, जो मूल रुप से अरबी ,फारसी भाषा से अपनाये गये है|
जैसे- • आबाद – अहमदाबाद , इलहाबाद |
• खाना – दवाखाना , छापाखाना |
• गर – जादूगर , बाजीगर |
• ईचा – बगीचा , गलीचा |
• ची – खजानची ,मशालची ,तोपची |
• दार – मालदार , दूकानदार ,जमीनदार |
• दान – कलमदान , पीकदान ,पायदान |
• बान – कोचवान ,बागबान |
• बाज – नशेबाज ,दगाबाज |
• मन्द – अकलमन्द ,भरोसेमन्द |
• नाक – दर्दनाक ,शर्मनाक |
• गी – दीवानगी , ताजगी |
• गीर – राहगीर , जहाँगीर |

हिंदी के प्रयुक्त प्रमुख प्रत्यय व उनसे बने प्रमुख शब्द –

• अ – शैव ,वैष्णव ,तैल ,पार्थिव , मानव ,वासुदेव , मार ,लूट |
• अक – चालक ,पावक ,पाठक , लेखक ,पालक ,खटक ,नायक |
• अंत – गढंत ,लड़ंत ,भिडंत ,रटंत ,कृदंत ,फलंत |
• अतीत – कालातीत ,आशातीत , गुणातीत , स्मरणातीत |
• इक – मानसिक , मार्मिक , पारिश्रमिक , ऐतिहासिक , धार्मिक |
• इम – अग्रिम , अंतिम , स्वर्णिम |
• उ – लघु, भानु, गुरु, अनु, भिक्षु, शिशु, वधु |
• एरा – लुटेरा , सपेरा ,चचेरा , ममेरा ,फुफेरा |
• कर – दिनकर , दिवाकर , हितकर, प्रभाकर, सुनकर |
• का – गुटका ,मटका ,टपका ,कालका |
• खाना – दवाखाना ,तोपखाना ,कारखाना ,छापाखाना |
• गर – जादूगर ,नीलगर ,कारीगर ,बाजीगर ,सौदागर ,कामगर |
• गुना – दुगना , तिगुना ,चौगुना ,सौगुना |
• चर – जलचर , नभचर , निशाचर ,उभयचर ,खेचर |
• ता – दाता , जाता , सुंदरता , मधुरता , मानवता |
• था – अन्यथा ,प्रथा ,पृथा ,वृथा ,कथा |
• दा – सर्वदा ,सदा ,यदा ,कदा ,परदा ,नर्मदा |
• दायी – आनंददायी ,सुखदायी ,उतरदायी ,फलदायी |
• धा – बहुधा ,अभिधा ,समिधा ,विविधा ,वसुंधा ,नवधा |
• ना – नाचना , गाना ,कूदना ,टहलना ,भावना ,कमाना |
• प – महीप , मधुप , जाप ,समताप ,मिलाप |
• बंद – कमरबंद ,बाजूबंद ,मोहरबंद |
• मती – श्रीमती ,बुद्धिमती ,वीरमती ,रूपमती |
• रू – दारू , चारु , शुरू ,डमरू |
• वा – बचवा ,पुरवा ,बछवा , मनवा |
• वाई – बनवाई ,सुनवाई ,तुलवाई , पुरवाई |
• वाल – कोतवाल ,पालीवाल ,धारीवाल |
• वी – तेजस्वी ,तपस्वी ,मेधावी ,मायावी ,मनस्वी |
• शाली – प्रतिभाशाली , गौरवशाली ,शक्तिशाली ,भाग्यशाली |
• साज – जालसाज , जिल्दसाज |
• हर – मनोहर ,खंडहर , नहर , पीहर |
• हीन – कर्महीन , बुद्धिहीन ,कुलहीन ,बलहीन ,मतिहीन ,धनहीन |

उपसर्ग

उपसर्ग

जो शब्दांश किसी मूल शब्द के पहले जुडकर उसके अर्थ में परिवर्तन या विशेषता उत्पन्न कर देते है ,उन शब्दान्शो को उपसर्ग कहते है |


जैसे ‘हार’ एक शब्द है।इस शब्द के पहले यदि ‘ सम् , वि ,प्र ’ उपसर्ग जोड़ दिए जाय ,तो– सम् + हार=संहार, ,वि + हार = विहार, प्र + हार =प्रहार तथा उप +हार= उपहार शब्द बनेगे। यहाँ उपसर्ग जुड़कर बने सभी शब्दों का अर्थ ‘हार’ शब्द से विभिन्न है।
1.उपसर्ग का अपना स्वतंत्र अर्थ नही होता, मूल शब्द के साथ जुड़कर ये नया अर्थ देते हैं। इनका स्वतंत्र प्रयोग नही होता।जब किसी मूल शब्द के साथ कोई उपसर्ग जुड़ता है तो उनमें सन्धि के नियम भी लागू होते है। संस्कृत उपसर्ग जुड़ता है | जैसे –आरम्भ का अर्थ है – शुरुआत | इसमे ‘प्र’ उपसर्ग जोड़ने पर नया शब्द ‘प्रारंभ’ बनता है जिसका अर्थ भी ‘शुरुआत’ ही निकलता है |
2.विशेष –यह जरुरी नहीं है कि एक शब्द के साथ एक ही उपसर्ग जुड़े |कभी कभी एक शब्द के साथ एक से आधिक उपसर्ग जुड सकते है |
जैसे
सम् +आ +लोचन =समालोचन |
सु+आ+गत =स्वागत |
प्रति +उप +कार= प्रत्युपकर |
सु + प्र +स्थान =सुप्रस्थान |
सत्+आ+चार =सदाचार |
अन्+आ+गत =अनागत |
अन् +आ+चार =अनाचार |
अ+परा+जय =अपराजय |

उपसर्ग के भेद


हिंदी भाषा में चार प्रकार के उपसर्ग प्रयुक्त होते है –
1 संस्कृत के उपसर्ग
2 देशी अर्थात हिंदी के उपसर्ग
3 विदेशी अर्थात उर्दू ,अंग्रेजी फारसी आदि भाषाओं के उपसर्ग
4 अव्यय शब्द ,जो उपसर्ग की तरह प्रयुक्त होते है |

1) संस्कृत के उपसर्ग:


संस्कृत के उपसर्ग में कुल बाईस उपसर्ग होते है | वे उपसर्ग तत्सम शब्दों के साथ हिंदी में प्रयुक्त होते है | इसलिए इन्हे संस्कृत के उपसर्ग कहते है |
उपसर्ग अर्थ उपसर्ग से निर्मित शब्द
अति अधिक अतिशय,अत्याचार,अतिसार , अतीय, अत्यल्प
तक तक ,सहित आजीवन , आकार , आजीविका ,आजन्म,आगमन ,आक्रमण, आहार
अधि प्रधान ,श्रेष्ठ अधिकार ,अधिनियम ,अध्यक्ष
अपि निश्चय ,ओर भी अपितु ,अपिधान ,अपिहित ,अपिवृत
अप बुरा आभाव अपयश ,अपकार ,अपव्यय ,अपहरण ,अपमान
अनु पीछे ,क्रम अनुसार ,अनुग्रह ,अनुकूल ,अनुकरण
अभी सामने ,पास अभिमान ,अभिमुख ,अभिमत ,अभिनय ,अभिनव
अव हिन् ,बुरा अवगुण ,अवतार ,अवनति ,अवशेष ,अवसान ,अवकाश
उत् ऊँचा ,श्रेष्ठ उत्कंठा,उत्थान,उत्तम,उत्पन्न,उत्पति,उत्साह
उप पास,सहायकय उपकार , उपमान , उपयोग
द्रुर बुरा,कठिन, विपरीत दुर्जन ,दुर्दशा ,दुर्लभ ,दुराचार ,दुराशा ,दुराग्रह ,दुर्भाग्
दुस् बुरा,कठिन दुस्साहस ,दुष्कर ,दुश्शासन,दुष्कर्म ,दुस्साध्य,दुस्तर
नि रहित ,विशेष निपुण , निगम , निबन्
निर् निषेध,विपरीत निर्लज्ज ,निर्भय ,निर्णय ,निर्दोष ,निरपराध
वि भाव ,विशेष,भिन् वियोग ,विनाश ,विजय ,विदेश ,विपक्ष ,विचार, विराम
सम् संपूर्ण ,उतम संसार ,संतोष ,संयोग,संकल्प ,स्वाद ,समाचार
सु अधिक,सरल सुलेख ,सुपुत्र ,सुगम ,सुकर ,सुदिन ,सुलभ ,सुमन , सुशिल ,सुविचार

2)हिंदी के उपसर्ग -


उपसर्ग अर्थ उपसर्ग से निर्मित शब्द
रहित ,निषेध अचेतन,अनाज,असाध्य ,अटल ,अमर
अन अभाव ,निषेध अनपढ़ ,अनबन ,अनमोल ,अनमेल ,अनहित
. उचक्का,उछलना,उभार,उखाड़नाद
बुरा कपूत ,कलंक ,कठोर ,कसूर ,कमर,कमाल ,कपास
भर पूरा भरपेट ,भरपूर ,भरकम ,भरसक ,भरपाई
सम समान समतल ,समदर्शी ,समरस ,सममित

3).विदेशी उपसर्ग :


हिंदी में विदेशी भाषाओं के उपसर्ग भी प्रयुक्त होते हैं | विशेष रुप से उर्दू ,फारसी ओंर अंग्रेजी के कई उपसर्ग अपनाये जाते हैं | इनमें से कतिपय इस प्रकार हैं

1) उर्दू फारसी के उपसर्ग:


उपसर्ग अर्थ उपसर्ग से निर्मित शब्द
अल निश्चत अलविदा,अलबता,अलहदा,अलबेला,अलमस्त
खुश प्रसन्न खुशदिल ,खुशमिजाज ,खुशनुमा ,खुशहाल ,खुशनसीब
गैर निषेध गैरकानूनी ,गैरहाजिर ,गैरकौम,गैरसरकारी त
नेक भला नेकराह ,नेकदिल ,नेकनाम

2) अंग्रेजी उपसर्ग :


उपसर्ग अर्थ उपसर्ग से निर्मित शब्द
सब छोटा सब रजिस्टर ,सब इंस्पेक्टर ,सब कमेटी ,सब जज
हैड प्रमुख हैडमास्टर ,हैडऑफिस
एक्स मुक्त एक्सप्रेस ,एक्स प्रिंसिपल,एक्स कमिश्नर
हाफ आधा हाफटिकट ,हाफरेट ,हाफपेन्ट,हाफकमीज
को सहित को-ऑपरेटिव ,को-ऑपरेशन, को-स्टार
वाईस उप वाईस प्रिन्सिपल ,वाईस प्रेसिडेंट

बुधवार, 8 सितंबर 2021

रस

रस

रस – साहित्य का नाम आते ही रस का नाम स्वतः आ जाता है। इसके बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारतीय साहित्य शास्त्रियों ने साहित्य के लिए रस की अनिवार्यता समझा और इसे साहित्य के लिए आवश्यक बताया। वास्तव में रस काव्य की आत्मा है।

रस –काव्य, कहानी उपन्यास आदि को पढ़ते या सुनते समय हमें जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ही रस कहा जाता है|


आचार्य भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा -

“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।“

अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के अंग-रस के चार अंग माने गए हैं –

रस के अंग


1 स्थायी भाव
2.विभाव-
3.अनुभाव
4.संचारीभाव


1.स्थायी भाव:

मानव ह्रदय मे स्थायी रूप मे विद्यमान रहने वाले भाव को स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है। शृंगार रस में ही वात्सल्य और भक्ति रस भी शामिल हैं |

रस और उनके स्थायी भाव

A रस स्थाई भाव
1 शृंगार रस रति (अनुकल वस्तु में मन का अनुराग या प्रेम)
2 करुण रस शौक (प्रिय वस्तु की हानि से चित्र में विकलता)
3 शांत रस निर्वेद (तत्वज्ञान में सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य या उदासीनता)
4 हास्य रस हास (भविष्यवाणी या चेष्टा आदि को विकृति से उत्पन्न उल्लास)
5 वीर रस उत्साह (कार्यारंभ के लिए दृढ़ उद्यम या संकल्प भाव)
6 अद्भुत रस विस्मय (अलौकिक या असाधारण वस्तु जनित आश्चर्य या कोतूहल)
7 रौद्र रस क्रोध (प्रतिकूल के प्रति चित्र की उग्रता)
8 वीभत्स रस जुगुप्सा (दोषयुक्त वस्तु से जनित घृणा)
9 भयानक रस भय ( उग्र वस्तु जनहित चित्र की व्याकुलता)
10 वात्सल्य वात्सल्य (संतान या प्रियजन की चेष्टा उनसे उत्पन्न प्रेम भाव)
11 भक्ति रस श्रद्धा (इष्ट के प्रति कृतज्ञता जनहित समर्पण सेवा आदि भाव)

2.विभाव:

स्थायी भाव को जागृत करने वाले कारण को विभाव कहते हैं। इसके कारण ही सह्रदय को रस का अनुभव प्राप्त होता है।

विभाव दो प्रकार के होते हैं :

(1) आलंबन विभाव
(2) उद्दीपन विभाव।

(1) आलंबन विभाव:

आलंबन विभाव ऐसे कारण को कहते हैं जिस पर भाव अवलंबित या टिका होता है। इसके भी दो भेद होते हैं: आश्रय और विषय।
(क) आश्रय: जिस व्यक्ति के चित्त में स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आश्रय कहते हैं।
(ख) विषय: जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति आश्रय के मन में स्थायीभाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं।
इन्हें एक उदाहरण से समझिए :
हरिश्चंद्र अपने मृत पुत्र रोहिताश्व को देखकर विलाप करते हैं। इसमें हरिश्चंद्र ‘आश्रय’ है और रोहिताश्व का मृत शरीर ‘विषय’ है। आश्रय और विषय दोनों मिलकर आलंबन विभाव बनते हैं।

(2) उद्दीपन विभाव:

जो आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को उद्दीप्त अर्थात् तीव्र करते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-
(क) बाहरी वातावरण
(ख) विषय की चेष्टाएँ।
एक उदाहरण से समझिए –
निर्जन वन में अंधकारपूर्ण रात्रि के समय सिंह को देखकर कोई व्यक्ति भयभीत हो जाता है। इसमें भयभीत व्यक्ति ‘आश्रय’ है, सिंह ‘विषय’ है। इसमें जंगल का सुनसान वातावरण तथा सिंह (विषय) की चेष्टाएँ, भयंकर मुखाकृति, झपट्टा मारने की क्रियाएँ भय के भाव को उद्दीप्त करते हैं। ये सभी उद्दीपन विभाव हैं।

.(3) अनुभाव-

‘अनु’ का अर्थ है- बाद में। आश्रय के चित्त में जो भाव उत्पन्न होते हैं, वे अनुभाव कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में आश्रय की बाद की चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं। जैसे-सिंह को देखकर व्यक्ति (आश्रय) का काँपना, चीखना, पसीना-पसीना हो जाना, मुख पीला पड़ जाना आदि चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं।

(4). संचारी भाव-

आश्रय के चित्त में स्थायी भाव के साथ आते-जाते रहने वाले अन्य भावों को संचारी भाव कहते हैं। इन्हें अस्थिर मनोविकार भी कहते हैं। एक उदाहरण से समझिए - सिंह से भयभीत व्यक्ति (आश्रय) के मन में उत्पन्न चिंता, शंका, मोह, जड़ता, उन्माद आदि भाव संचारी भाव कहलाएँगे। संचारीभावों की संख्या 33 मानी जाती है।
(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय/व्यग्रता) (4) लज्जा (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख) (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) चपलता (15) दीनता (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना) (19) घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव) (20) मति (21) बिबोध (चैतन्य लाभ) (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति (28) मद (29) उन्माद 30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना) (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (रोग) (33) मरण

स्थायी भाव और संचारी भाव में अंतर-


(1) स्थायी भाव उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होते हैं, अंत तक बने रहते हैं। (1) संचारीभाव पानी के बुलबुलों की भाँति बनते-बिगड़ते रहते हैं।
(2) प्रत्येक रस का एक ही स्थायी भाव निश्चित रहता है। (2) संचारीभाव अनेक रसों के साथ रह सकता है। अत: इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है।

रस निष्पत्ति-सह्रदय के चित्त में स्थित स्थायीभाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव में संयोग होता है, तो वह रस का रूप ग्रहण कर लेता है।

1. श्रृंगार रस:

जब सह्रदय के चित्त में ‘रति’ नामक स्थायी भाव का विभाव, अनुभाव और संचारी भाव संयोग होता है, तब वह श्रृंगार रस का रूप ग्रहण कर लेता है। श्रृंगार रस के दो भेद हैं- संयोग और वियोग।

(क) संयोग श्रृंगार:

जहाँ नायक-नायिका के मिलन का वर्णन हो, वहाँ संयोग श्रृंगार रस का प्रयोग माना जाता है।
उदाहरण-
‘‘एक पल, मेरे प्रिय के दृग-पलक
थे उठे-ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने, इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय-संबंध था।’’
* स्थायी भाव: रति
* आलंबन विभाव: नायक-नायिका
* उद्दीपन विभाव: दृग पलकों का उठना-गिरना
* अनुभाव: नायक का विकंपित पुलक
* संचारी भाव: चपलता, लज्जा आदि।

(ख) वियोग श्रृंगार:

जहाँ नायक-नायिका के वियोग का वर्णन हो, वहाँ वियोग श्रृंगार रस का प्रयोग माना जाता है।
उदाहरण : सुनि-सुनि उद्धव की अकह कहानी कान,
कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।
कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी,
कोऊ कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं।
यहाँ गोपियों के श्रीकृष्ण से वियोग की स्थिति का वर्णन है।
* स्थायी-भाव: रति
*आलंबन-विभाव: श्रीकृष्ण
* उद्दीपन-विभाव: उद्धव की अकह कहानी
* अनुभाव: काँपना, श्याम-श्याम पुकारना, व्याकुल होना, हृदय को थाम लेना
* संचारी भाव: जड़ता, प्रलाप, उन्माद आदि।

2. हास्य रस:-

विभावादि के संयोग से सामाजिक के ह्रदय का ‘हास’ स्थायी भाव हास्य रस के रूप में अभिव्यक्त होकर आस्वादन योग्य बनता है|
उदाहरण-
सिर घोर मोर पर,चुटिया थी लहराती।
थी तोंद लटक कर घुटनों को छू जाती।
जब मटक मटक कर चले,हँसी थी भारी।
हो गये देखकर,लोट-पोट नर नारी॥
यहाँ विचित्र स्वरुप वाले किसी पात्र का वर्णन है
* स्थायी भाव: हास
* आश्रय: दर्शक
* आलंबन विभाव: पात्र
* उद्दीपन विभाव: मटक-मटककर चलना
* अनुभाव: हँसना,लोटपोट होना
* संचारी भाव: हर्ष,औत्सुक्य आदि ।

3. करुण रस-

विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से परिपुष्ट सामाजिक का ‘शोक’ स्थायी भाव करुण रस कहा जाता है |
उदाहरण :
मेरे ह्रदय के हर्ष हा !
अभिमन्यु अब तू है कहाँ ?
दृग खोलकर बेटा !
तनिक तो देख हम सबको यहाँ |
मामा खड़े हैं पास तेरे,
तू मही पर है पड़ा |
निज गुरुजनों के मान का तो ध्यान था तुझको बड़ा |
* स्थायी भाव: शोक
* आलंबन विभाव: मृत अभिमन्यु
* उद्दीपन विभाव: शव का सामने रहना
* अनुभाव: रोना और बिलखना आदि

4. रौद्र रस:-

जब क्रोध नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव और संचारीभाव से होता है, तब वह रौद्र रस का रूप ग्रहण कर लेता है।
उदाहरण :
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गए उठकर खड़े।
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।
स्थायी भाव : क्रोध
आश्रय : अर्जुन
शत्रु : विषय है।
अनुभाव : क्रोधपूर्ण घोषणा, शरीर काँपना
संचारी भाव : आवेग, चपलता, उग्रता

5. वीर रस:

युद्ध में वीरता के प्रश्नसंग में वीर रस का परिपाक होता है। जब सह्रदय के चित्त में उत्साह नामक स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब वीर रस का चित्रण होता है।
उदाहरण :
हे सारथे! हे द्रोण क्या, देवेंद्र भी आकर अड़ें,
है खेल क्षत्रिय बालकों का, व्यूह-भेदन कर लड़ें,
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को, प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
स्थायी भाव : उत्साह
आश्रय : अभिमन्यु
विषय : द्रोणाचार्य
अनुभाव : अभिमन्यु के वचन
संचारी भाव : रोमांच, उत्सुकता, उग्रता आदि।

6. वीभत्स रस:-

घृणा अथवा गंदे/ घृणास्पद दृश्य वीभत्स रस उत्पन्न करते हैं। सह्रदय के चित्त में जब जुगुप्सा (घृणा) नामक स्थायी भाव- विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से मिलता है, तब वीभत्स रस उत्पन्न होता है।
उदाहरण-
सिर पै बैठ्यो काग, आँख दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनंद उर धारत।।
गिद्ध जाँघ कहै खोदि खोदि के माँस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि काटि के खात बिदारत।।
यहाँ श्मशान के घृणित दृश्य का चित्रण है।
* स्थायी भाव : ‘जुगुप्सा’ (घृणा)
* आलंबन : श्मशान का दृश्य
* ‘उद्दीपन’ : श्मशान में कौए, सियार, गिद्ध आदि की चेष्टाएँ हैं।
* संचारीभाव : आवेग, उग्रता आदि

7. भयानक रस:-

डरावने दृश्य भयानक रस की सृष्टि करते हैं। जब ‘भय’ नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब भयानक रस उत्पन्न होता है।
उदाहरण -
एक ओर अजगरहिं लखि, एक ओर मृगराय।
विकल बटोही बीच ही पर्यो मूरछा खाय।।
यहां-
* आश्रय : विकल बटोही
* विषय : अजगर और सिंह
* उद्दीपन : अजगर -सिंह की चेष्टाएँ
* अनुभाव : बटोही का मूर्छित होना
* संचारी भाव : शंका, दीनता, त्रास

8. अद्भुत रस:-

चकित कर देने वाले दृश्य के प्रसंग अद्भुत रस को जन्म देते हैं। जब सह्रदय के चित्त में ‘विस्मय’ नामक स्थायीभाव का संयोग विभाग, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब अद्भुत रस का परिपाक होता है।
उदाहरण :
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरि-मुख में लखि मातु।
चकित भई गदगद् बचन, बिकसित दृग पुलकातु।।
अर्थात- भगवान कृष्ण के मुख में सारे भवनों (लोकों) का दर्शन कर यशोदा माता चकित रह गई। यहाँ-
* स्थायी भाव : विस्मय
* आलंबन : श्रीकृष्ण का मुख
* विषय : माता यशोदा
* विभाव : मुख में भुवनों का दिखाई देना
* अनुभाव : गदगद् होना, रोमांच होना|
* संचारी भाव : त्रास, दैन्य।

9. शांत रस:-

मन में शांति, वैराग्य, संयम को जगाने वाले प्रसंगों में शांत रस होता है। जब सह्रदय के चित्त में ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब शांत रस का परिपाक होता है।
उदाहरण :
मन पछतैहै अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ, हरि-पद भजु, करम वचन अरु ही तै।
सुत बनितादि जान स्वारथ रत, न करु नेह सबकी तै।
अंतहुँ तोहि तजेंगे पामर, तू न तजै अब ही तै।
*स्थायी भाव : वैराग्य
* आश्रय ; भक्त का ह्रदय
* आलंबन : संसार की नश्वरता
* उद्दीपन:संबंधियों का व्यवहार :

10. भक्ति रस:-

मन में देवता, भगवान या किसी पूजनीय के प्रति पूजा, समर्पण एवं भक्ति का भाव भक्ति रस का जनक होता है। जब सह्रदय के चित्त में ‘भगवत विषयक रति’ नामक स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब भक्ति रस का परिपाक होता है।
उदाहरण :
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई |
जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई |
यहाँ-
* स्थायी भाव : भगवत विषयक रति
* आश्रय:भक्त का ह्रदय
* आलंबन :ईश्वर की सर्व व्यापकता :
* उद्दीपन : विभिन्न प्रकार की भक्ति-पूर्ण चेष्टाएँ

11. वात्सल्य रस:-

अपने से छोटों के प्रति स्नेह के चित्रण में वात्सल्य रस होता है। जब सह्रदय के चित्त में ‘वत्सल’ नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब वात्सल्य रस का परिपाक होता है।
उदाहरण :
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलरावै, मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवै, तो को कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै के रहि, करि-करि सैन बतावै।
इस पद्य में -
*स्थायी भाव : वत्सल है
*आश्रय : यशोदा माता
*आलंबन (विषय): बालकृष्ण
*उद्दीपन विभाव: कृष्ण का नींद को बुलाना, पलकें मूँदना, व्याकुल होना।
*अनुभाव : यशोदा की क्रियाएँ। *संचारी भाव : शंका, हर्ष आदि।