रस
रस – साहित्य का नाम आते ही रस का नाम स्वतः आ जाता है। इसके बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारतीय साहित्य शास्त्रियों ने साहित्य के लिए रस की अनिवार्यता समझा और इसे साहित्य के लिए आवश्यक बताया। वास्तव में रस काव्य की आत्मा है।
रस और उनके स्थायी भाव
रस –काव्य, कहानी उपन्यास आदि को पढ़ते या सुनते समय हमें जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ही रस कहा जाता है|
आचार्य भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा - “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।“
अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
रस के अंग-रस के चार अंग माने गए हैं –
रस के अंग
1 स्थायी भाव
2.विभाव-
3.अनुभाव
4.संचारीभाव
मानव ह्रदय मे स्थायी रूप मे विद्यमान रहने वाले भाव को स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।
शृंगार रस में ही वात्सल्य और भक्ति रस भी शामिल हैं |
1.स्थायी भाव:
A
रस
स्थाई भाव
1
शृंगार रस
रति (अनुकल वस्तु में मन का अनुराग या प्रेम)
2
करुण रस
शौक (प्रिय वस्तु की हानि से चित्र में विकलता)
3
शांत रस
निर्वेद (तत्वज्ञान में सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य या उदासीनता)
4
हास्य रस
हास (भविष्यवाणी या चेष्टा आदि को विकृति से उत्पन्न उल्लास)
5
वीर रस
उत्साह (कार्यारंभ के लिए दृढ़ उद्यम या संकल्प भाव)
6
अद्भुत रस
विस्मय (अलौकिक या असाधारण वस्तु जनित आश्चर्य या कोतूहल)
7
रौद्र रस
क्रोध (प्रतिकूल के प्रति चित्र की उग्रता)
8
वीभत्स रस
जुगुप्सा (दोषयुक्त वस्तु से जनित घृणा)
9
भयानक रस
भय ( उग्र वस्तु जनहित चित्र की व्याकुलता)
10
वात्सल्य
वात्सल्य (संतान या प्रियजन की चेष्टा उनसे उत्पन्न प्रेम भाव)
11
भक्ति रस
श्रद्धा (इष्ट के प्रति कृतज्ञता जनहित समर्पण सेवा आदि भाव)
2.विभाव:
स्थायी भाव को जागृत करने वाले कारण को विभाव कहते हैं। इसके कारण ही सह्रदय को रस का अनुभव प्राप्त होता है।
विभाव दो प्रकार के होते हैं :
(1) आलंबन विभाव (2) उद्दीपन विभाव।
(1) आलंबन विभाव:
आलंबन विभाव ऐसे कारण को कहते हैं जिस पर भाव अवलंबित या टिका होता है। इसके भी दो भेद होते हैं: आश्रय और विषय।(क) आश्रय: जिस व्यक्ति के चित्त में स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आश्रय कहते हैं।
(ख) विषय: जिस व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति आश्रय के मन में स्थायीभाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं।
इन्हें एक उदाहरण से समझिए :
हरिश्चंद्र अपने मृत पुत्र रोहिताश्व को देखकर विलाप करते हैं। इसमें हरिश्चंद्र ‘आश्रय’ है और रोहिताश्व का मृत शरीर ‘विषय’ है। आश्रय और विषय दोनों मिलकर आलंबन विभाव बनते हैं।
(2) उद्दीपन विभाव:
जो आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को उद्दीप्त अर्थात् तीव्र करते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-(क) बाहरी वातावरण
(ख) विषय की चेष्टाएँ।
एक उदाहरण से समझिए –
निर्जन वन में अंधकारपूर्ण रात्रि के समय सिंह को देखकर कोई व्यक्ति भयभीत हो जाता है। इसमें भयभीत व्यक्ति ‘आश्रय’ है, सिंह ‘विषय’ है। इसमें जंगल का सुनसान वातावरण तथा सिंह (विषय) की चेष्टाएँ, भयंकर मुखाकृति, झपट्टा मारने की क्रियाएँ भय के भाव को उद्दीप्त करते हैं। ये सभी उद्दीपन विभाव हैं।
.(3) अनुभाव-
‘अनु’ का अर्थ है- बाद में। आश्रय के चित्त में जो भाव उत्पन्न होते हैं, वे अनुभाव कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में आश्रय की बाद की चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं। जैसे-सिंह को देखकर व्यक्ति (आश्रय) का काँपना, चीखना, पसीना-पसीना हो जाना, मुख पीला पड़ जाना आदि चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं।(4). संचारी भाव-
आश्रय के चित्त में स्थायी भाव के साथ आते-जाते रहने वाले अन्य भावों को संचारी भाव कहते हैं। इन्हें अस्थिर मनोविकार भी कहते हैं। एक उदाहरण से समझिए - सिंह से भयभीत व्यक्ति (आश्रय) के मन में उत्पन्न चिंता, शंका, मोह, जड़ता, उन्माद आदि भाव संचारी भाव कहलाएँगे। संचारीभावों की संख्या 33 मानी जाती है।(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय/व्यग्रता) (4) लज्जा (5) ग्लानि (6) चिंता (7) शंका (8) असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख) (10) मोह (11) गर्व (12) उत्सुकता (13) उग्रता (14) चपलता (15) दीनता (16) जड़ता (17) आवेग (18) निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना) (19) घृति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव) (20) मति (21) बिबोध (चैतन्य लाभ) (22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति (28) मद (29) उन्माद 30) अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना) (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (रोग) (33) मरण
स्थायी भाव और संचारी भाव में अंतर-
(1) स्थायी भाव उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होते हैं, अंत तक बने रहते हैं। (1) संचारीभाव पानी के बुलबुलों की भाँति बनते-बिगड़ते रहते हैं।
(2) प्रत्येक रस का एक ही स्थायी भाव निश्चित रहता है। (2) संचारीभाव अनेक रसों के साथ रह सकता है। अत: इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है।
रस निष्पत्ति-सह्रदय के चित्त में स्थित स्थायीभाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव में संयोग होता है, तो वह रस का रूप ग्रहण कर लेता है।
1. श्रृंगार रस:
जब सह्रदय के चित्त में ‘रति’ नामक स्थायी भाव का विभाव, अनुभाव और संचारी भाव संयोग होता है, तब वह श्रृंगार रस का रूप ग्रहण कर लेता है। श्रृंगार रस के दो भेद हैं- संयोग और वियोग।(क) संयोग श्रृंगार:
जहाँ नायक-नायिका के मिलन का वर्णन हो, वहाँ संयोग श्रृंगार रस का प्रयोग माना जाता है।उदाहरण-
‘‘एक पल, मेरे प्रिय के दृग-पलक
थे उठे-ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने, इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय-संबंध था।’’
* स्थायी भाव: रति
* आलंबन विभाव: नायक-नायिका
* उद्दीपन विभाव: दृग पलकों का उठना-गिरना
* अनुभाव: नायक का विकंपित पुलक
* संचारी भाव: चपलता, लज्जा आदि।
(ख) वियोग श्रृंगार:
जहाँ नायक-नायिका के वियोग का वर्णन हो, वहाँ वियोग श्रृंगार रस का प्रयोग माना जाता है।उदाहरण : सुनि-सुनि उद्धव की अकह कहानी कान,
कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं।
कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी,
कोऊ कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं।
यहाँ गोपियों के श्रीकृष्ण से वियोग की स्थिति का वर्णन है।
* स्थायी-भाव: रति
*आलंबन-विभाव: श्रीकृष्ण
* उद्दीपन-विभाव: उद्धव की अकह कहानी
* अनुभाव: काँपना, श्याम-श्याम पुकारना, व्याकुल होना, हृदय को थाम लेना
* संचारी भाव: जड़ता, प्रलाप, उन्माद आदि।
2. हास्य रस:-
विभावादि के संयोग से सामाजिक के ह्रदय का ‘हास’ स्थायी भाव हास्य रस के रूप में अभिव्यक्त होकर आस्वादन योग्य बनता है|उदाहरण-
सिर घोर मोर पर,चुटिया थी लहराती।
थी तोंद लटक कर घुटनों को छू जाती।
जब मटक मटक कर चले,हँसी थी भारी।
हो गये देखकर,लोट-पोट नर नारी॥
यहाँ विचित्र स्वरुप वाले किसी पात्र का वर्णन है
* स्थायी भाव: हास
* आश्रय: दर्शक
* आलंबन विभाव: पात्र
* उद्दीपन विभाव: मटक-मटककर चलना
* अनुभाव: हँसना,लोटपोट होना
* संचारी भाव: हर्ष,औत्सुक्य आदि ।
3. करुण रस-
विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से परिपुष्ट सामाजिक का ‘शोक’ स्थायी भाव करुण रस कहा जाता है |उदाहरण :
मेरे ह्रदय के हर्ष हा !
अभिमन्यु अब तू है कहाँ ?
दृग खोलकर बेटा !
तनिक तो देख हम सबको यहाँ |
मामा खड़े हैं पास तेरे,
तू मही पर है पड़ा |
निज गुरुजनों के मान का तो ध्यान था तुझको बड़ा |
* स्थायी भाव: शोक
* आलंबन विभाव: मृत अभिमन्यु
* उद्दीपन विभाव: शव का सामने रहना
* अनुभाव: रोना और बिलखना आदि
4. रौद्र रस:-
जब क्रोध नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव और संचारीभाव से होता है, तब वह रौद्र रस का रूप ग्रहण कर लेता है।उदाहरण :
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गए उठकर खड़े।
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।
स्थायी भाव : क्रोध
आश्रय : अर्जुन
शत्रु : विषय है।
अनुभाव : क्रोधपूर्ण घोषणा, शरीर काँपना
संचारी भाव : आवेग, चपलता, उग्रता
5. वीर रस:
युद्ध में वीरता के प्रश्नसंग में वीर रस का परिपाक होता है। जब सह्रदय के चित्त में उत्साह नामक स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब वीर रस का चित्रण होता है।उदाहरण :
हे सारथे! हे द्रोण क्या, देवेंद्र भी आकर अड़ें,
है खेल क्षत्रिय बालकों का, व्यूह-भेदन कर लड़ें,
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को, प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
स्थायी भाव : उत्साह
आश्रय : अभिमन्यु
विषय : द्रोणाचार्य
अनुभाव : अभिमन्यु के वचन
संचारी भाव : रोमांच, उत्सुकता, उग्रता आदि।
6. वीभत्स रस:-
घृणा अथवा गंदे/ घृणास्पद दृश्य वीभत्स रस उत्पन्न करते हैं। सह्रदय के चित्त में जब जुगुप्सा (घृणा) नामक स्थायी भाव- विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से मिलता है, तब वीभत्स रस उत्पन्न होता है।उदाहरण-
सिर पै बैठ्यो काग, आँख दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनंद उर धारत।।
गिद्ध जाँघ कहै खोदि खोदि के माँस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि काटि के खात बिदारत।।
यहाँ श्मशान के घृणित दृश्य का चित्रण है।
* स्थायी भाव : ‘जुगुप्सा’ (घृणा)
* आलंबन : श्मशान का दृश्य
* ‘उद्दीपन’ : श्मशान में कौए, सियार, गिद्ध आदि की चेष्टाएँ हैं।
* संचारीभाव : आवेग, उग्रता आदि
7. भयानक रस:-
डरावने दृश्य भयानक रस की सृष्टि करते हैं। जब ‘भय’ नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब भयानक रस उत्पन्न होता है।उदाहरण -
एक ओर अजगरहिं लखि, एक ओर मृगराय।
विकल बटोही बीच ही पर्यो मूरछा खाय।।
यहां-
* आश्रय : विकल बटोही
* विषय : अजगर और सिंह
* उद्दीपन : अजगर -सिंह की चेष्टाएँ
* अनुभाव : बटोही का मूर्छित होना
* संचारी भाव : शंका, दीनता, त्रास
8. अद्भुत रस:-
चकित कर देने वाले दृश्य के प्रसंग अद्भुत रस को जन्म देते हैं। जब सह्रदय के चित्त में ‘विस्मय’ नामक स्थायीभाव का संयोग विभाग, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब अद्भुत रस का परिपाक होता है।उदाहरण :
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरि-मुख में लखि मातु।
चकित भई गदगद् बचन, बिकसित दृग पुलकातु।।
अर्थात- भगवान कृष्ण के मुख में सारे भवनों (लोकों) का दर्शन कर यशोदा माता चकित रह गई। यहाँ-
* स्थायी भाव : विस्मय
* आलंबन : श्रीकृष्ण का मुख
* विषय : माता यशोदा
* विभाव : मुख में भुवनों का दिखाई देना
* अनुभाव : गदगद् होना, रोमांच होना|
* संचारी भाव : त्रास, दैन्य।
9. शांत रस:-
मन में शांति, वैराग्य, संयम को जगाने वाले प्रसंगों में शांत रस होता है। जब सह्रदय के चित्त में ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब शांत रस का परिपाक होता है।उदाहरण :
मन पछतैहै अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ, हरि-पद भजु, करम वचन अरु ही तै।
सुत बनितादि जान स्वारथ रत, न करु नेह सबकी तै।
अंतहुँ तोहि तजेंगे पामर, तू न तजै अब ही तै।
*स्थायी भाव : वैराग्य
* आश्रय ; भक्त का ह्रदय
* आलंबन : संसार की नश्वरता
* उद्दीपन:संबंधियों का व्यवहार :
10. भक्ति रस:-
मन में देवता, भगवान या किसी पूजनीय के प्रति पूजा, समर्पण एवं भक्ति का भाव भक्ति रस का जनक होता है। जब सह्रदय के चित्त में ‘भगवत विषयक रति’ नामक स्थायी भाव का संयोग विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब भक्ति रस का परिपाक होता है।उदाहरण :
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई |
जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई |
यहाँ-
* स्थायी भाव : भगवत विषयक रति
* आश्रय:भक्त का ह्रदय
* आलंबन :ईश्वर की सर्व व्यापकता :
* उद्दीपन : विभिन्न प्रकार की भक्ति-पूर्ण चेष्टाएँ
11. वात्सल्य रस:-
अपने से छोटों के प्रति स्नेह के चित्रण में वात्सल्य रस होता है। जब सह्रदय के चित्त में ‘वत्सल’ नामक स्थायी भाव का मेल विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से होता है, तब वात्सल्य रस का परिपाक होता है।उदाहरण :
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलरावै, मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवै, तो को कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै के रहि, करि-करि सैन बतावै।
इस पद्य में -
*स्थायी भाव : वत्सल है
*आश्रय : यशोदा माता
*आलंबन (विषय): बालकृष्ण
*उद्दीपन विभाव: कृष्ण का नींद को बुलाना, पलकें मूँदना, व्याकुल होना।
*अनुभाव : यशोदा की क्रियाएँ। *संचारी भाव : शंका, हर्ष आदि।
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